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आपराधिक कानून

बिस्वजीत दास बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2025)

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 22-Oct-2025

परिचय 

इस मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम (LICI) के विकास अधिकारी को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC Act) के अधीन अपराधों के लिये दोषसिद्ध ठहराया गया था। 

  • न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन कीपीठ नेकहा कि सीमित नोटिस जारी करने से व्यापक विवाद्यकों को संबोधित करने के लिये उसकी अधिकारिता सीमित नहीं हो जातीयदि कोई महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न या स्पष्ट त्रुटियाँ उठाई जाती हैं।   

तथ्य 

  • बिस्वजीत दासजो भारतीय जीवन बीमा निगम (LICI) में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत थेपर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने दो बीमा दावों का निपटारा कपटपूर्वक किया 
  • उन्होंने कथित तौर पर एक सह-दोषी के साथ दुरभिसंधि करके एक बीमित व्यक्ति को मृत दिखा दियाजबकि वह व्यक्ति जीवित था। 
  • अभियोजन पक्ष ने साक्ष्य प्रस्तुत कर बताया कि दास और बीमाकृत व्यक्ति के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थेतथा दास ने बीमाकृत व्यक्ति से पॉलिसी अपग्रेड करने के बहाने पॉलिसी प्राप्त की थी। 
  • दास ने कुल 1,67,583 रुपइ के छह खाली चेक भरे थेजो बीमा दावे की राशि के अनुरूप थे। 
  • विचारण न्यायालय ने दास कोभारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की कई धाराओं के अधीन दोषी ठहरायाजिसमें धारा 468, 271, 465 और 420 के साथ धारा 120 (सम्मिलित हैं।  
  • उन्हेंभ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC) की धारा 13(1)(घ) सहपठित धारा 13(2) के अधीन भी दोषी ठहराया गया। 
  • विचारण न्यायालय ने उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की अधिकांश धाराओं के लिये दो वर्ष के कठोर कारावासधारा 271 और 465 के लिये एक वर्ष तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराधों के लिये तीन वर्ष का दण्ड दिया 
  • दास नेगुवाहाटी उच्च न्यायालयमें अपील कीजिसने 27 सितंबर 2013 को एक निर्णय के माध्यम से उनकी दोषसिद्धि और दण्डादेश दोनों को बरकरार रखा। 
  • अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की। अपीलकर्त्ता को 36 महीने के दण्ड में से लगभग 22 महीने का दण्ड काटने के बाद 12 अक्टूबर 2015 को ज़मानत मिल गई। 

विवाद्यक  

  • क्या अपीलकर्त्ता को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1)(घ) के साथ धारा 13(2) के अधीन दोषी ठहराया जा सकता है और अन्य अपराधों के लिये दण्ड की मात्रा क्या है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

सीमित सूचना और अपील के दायरे पर: 

  • अपीलकर्त्ता चाहता था कि न्यायालय सभी बिंदुओं पर अपील सुनेन कि केवल सीमित नोटिस वाले बिंदुओं पर। 
  • न्यायालय नेउदार दृष्टिकोणअपनाया : सीमित नोटिस अधिकारिता को प्रतिबंधित नहीं करताकेवल न्यायिक विवेक को प्रतिबंधित करता है; 
  • न्यायालय संपूर्ण विवाद की जांच तब कर सकता है जब पर्याप्त न्याय की आवश्यकता हो। 

सीमित सूचना पर सिद्धांत: 

न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत किया: 

  • सीमित सूचना अक्सरअस्थायी विचारों पर आधारित होती है।यदि बाद में स्पष्ट कमज़ोरियाँ या स्पष्ट प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ सामने आती हैंतो यदि न्यायालय गुण-दोष की जांच नहीं कर पाता हैतो न्याय को नुकसान पहुँच सकता है। 
  • चूँकि अनुच्छेद 136 की अधिकारिता विवेकाधीन हैइसलिये न्यायालय सीमित सूचना के बाद भी सभी विधिक बिंदुओं पर निर्णय लेने का अधिकार रखता है। यद्यपिइस शक्ति का प्रयोग करना या न करना विवेकाधिकार का विषय हैजिसका प्रयोग न्याय की मांग के अनुसार किया जाना चाहिये 
  • यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि विधि के महत्त्वपूर्ण प्रश्न विचारणीय हैंफिर भी वह अपनी अधिकारिता का विस्तार नहीं कर सकतातो उच्चतम न्यायालय नियमावली, 2013 के आदेश LV (Order LV) के नियम 6 (Rule 6) को संविधान के अनुच्छेद 142 के साथ पढ़ने पर भी उसका महत्त्व निरर्थक हो जाएगा। । 

भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दोषसिद्धि पर: 

  • न्यायालय नेमजबूत साक्ष्य तथा अपीलकर्त्ता द्वारा दावे की सही राशि के लिये खाली चेक भरने के बारे में स्पष्टीकरण देने में असमर्थता के आधार परदोषसिद्धि को बरकरार रखा । 

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की प्रयोज्यता पर:  

  • न्यायालय ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2()(iii) के साथ धारा 13 के अधीनभारतीय जीवन बीमा निगम (LICI) का एक कर्मचारीजिसे एक केंद्रीय विधि (भारतीय जीवन बीमा निगम अधिनियम, 1956) द्वारा स्थापित किया गया हैआधिकारिक क्षमता में अपराध करने पर लोक सेवक की परिभाषा के अंतर्गत आता है।  

दण्ड की मात्रा पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता ने जमानत पर रिहा होने से पहले 36 महीने के दण्डादेश में से लगभग 22 महीने का दण्ड काट लिया था 
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1)(घ) के साथ धारा 13(2) के अधीन अपराध के लिये न्यूनतम दण्ड प्रासंगिक समय पर एक वर्ष थी। 
  • इन कारकों और इस सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए कि न्याय का हित सुनिश्चित किया जाना चाहियेन्यायालय ने दण्डादेश को पहले से भुगती गई अवधि तक संशोधित कर दियाजो कुल दण्डादेश का लगभग दो-तिहाई था। 

निष्कर्ष  

उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की भारतीय दण्ड संहिता और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियमदोनों के अधीन अपराधों के लिये दोषसिद्धि को बरकरार रखायह पाते हुए कि उसने भारतीय जीवन बीमा निगम (LICI) विकास अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए कपटपूर्वक मिथ्या बीमा दावों में सहायता की थी। यद्यपिन्यायालय ने घटना के बाद से बीत चुके समय और पहले ही काटे जा चुके दण्डादेश के पर्याप्त भाग को ध्यान में रखते हुएदण्डादेश को पहले ही काटी जा चुकी अवधि (लगभग 22 महीने) तक संशोधित कर दिया।